रविवार, 17 मई 2015

१७/५/१५

लाजिम है कि हम भी फेंकेंगे .......हम फेंकेंगे .......4 / 15
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आजकल , मेरे दौरों से कुछ लोगों का हाजमा बिगड़ गया है | इसलिए उन्हें हाजमोला का डोज़ देना बहुत जरूरी हो गया है | बदहजमी की शिकार इस जमात को बता दूं कि मेरा विश्व भ्रमण , मेरा आकाश-आकर्षण आदि , यूँ ही नहीं है, इसके पीछे ठोस भौतिक , धार्मिक - आध्यात्मिक कारण हैं | सबसे पहले , मैं भौतिक कारणों का खुलासा कर दूं क्योंकि औसत या औसत से कम बुद्धि वालों को ठोस बातें आसानी से समझ में आती हैं | इस सनसनी पसंद जमात के लिए सबसे पहले एक झन्नाटेदार खुलासा भी लगे हाथ करता चलूं |
मितरों ! आप सब के लिए यह अबूझ होगा परन्तु बता दूं कि बचपन से , राहुल , मुझे बहुत प्रिय रहे है | इस महान देश में ,एक नही दो नामचीन राहुल हुए हैं और दोनों 20 वीं सदी के है और दोनों मुझे बहुत प्रिय हैं | ये , दूसरा वाला नम्बर दो राहुल आजकल कुछ ज्यादा बोल रहा है , नित नए नए सवाल उठा रहा है और हमसे जवाब मांग रहा है | इस राहुल का यह रूप बिलकुल अलग है परन्तु मुझे बहुत भा रहा है | उसे मैं उसे कोई जवाब इसलिए नही देता क्योंकि एक लिहाज़ से यह मेरा गुरुभाई भी है | हालांकि , मेरे कई गुरु हैं परन्तु हर गुरु से मैंने केवल एक ही सूत्र सीखा और आगे बढ़ गया | अपने गुरुओं शिक्षाओं का प्रसार करने के बजाय उसे सीमित करने का यह अजूबा मैंने किया | यह कारनामा सिर्फ मेरे ही बस की बात है | पहले वाले राहुल मेरे गुरु हैं जो जाति से ब्राह्मण है और जिन्होंने मुझे विश्व भ्रमण का सूत्र दिया | जिसे मैंने गाँठ में बाँध लिया | बचपन में कभी मैंने उनका लिखा एक लेख पढ़ा '' अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा '' बस तब से मैंने इसे जीवन दर्शन मान लिया |आजकल के मेरे दौरे, मेरे गुरु की दी हुई सीख का ही परिणाम है | नम्बर दो , राहुल मेरा गुरुभाई , इन अर्थों में है कि उसके भी ज्ञान चक्षु विदेश यात्रा के बाद ही खुले | इससे भी इस सूत्र के अकाट्य होने का प्रमाण मिलता है |
मितरों ! विदेश यात्राये , आँखें खोलने के लिए जरूरी हैं | जब भी मैं विदेश यात्रा करता हूँ तो मेरी आंखें खुली की खुली रह जाती हैं | व्यक्ति को हमेशा आँखें खुली रखनी चाहिए | उसे खुली आँखों से दुनिया देखने का शउर पैदा करना चाहिए यहाँ तक की खुली आँखों से उसे सपना भी देखना चाहिए | मैं इसलिए हमेशा दिन में सपने देखता हूँ क्योंकि दिन में आँखें खुले होने की बायलोजिकल गारंटी होती है | दिन में स्वप्न यानि दिवास्वप्न का संसार , अद्भुत होता है | आप भी इसका आस्वाद कर सकें इसलिए आप सब को भी मैं दिवा स्वप्न दिखाने की कोशिशों में अहर्निश लगा रहता हूँ | पहला मौका मिलते ही व्यक्ति को दिवास्वप्न देखना चाहिए | आज कल हम और मेरा गुरुभाई दोनों इसी काम में लगे है |यह तो थी ठोस भौतिक वज़ह |
इस के बाद धार्मिक और आध्यात्मिक कारणों पर आता हूँ | अपने भ्रमण प्रेम के बारे में इसके लिए मुझे कुछ और तथ्य आपसे साझा करना लाजमी हैं | उपर जो कारण मैंने बताये वह तो दुनियावी कारण थे | इससे ज्यादा महत्वपूर्ण कारण तो मेरी कुंडली और हस्त रेखाओं में छिपा है जिसे कोई ज्ञानी ध्यानी ही जान सकता है | मैं आपको बताता चलूं , कि मैं बचपन से ही नियतिवादी और नसीबवादी रहा हूँ | यह संस्कार मुझमें पूर्वजन्मों से ट्रांसफर हो कर आया है | यह इश्वर की ट्रांसफर पालिसी है जिस पे हम मनुष्यों का कोई हस्तक्षेप सम्भव नही | इसके अलावा , मेरा पूरा परिवार अत्यंत धार्मिक , घोर कर्मकांडी और भाग्यवादी रहा है | मेरी माँ मुझे बताया करती थी की जब मेरा जन्म हुआ तब फौरन उन्होंने इलाके के सबसे बड़े पंडित जी को बुलवा कर मेरा जन्मांग चक्र बनवाया | जन्मांग चक्र के आधार पर मेरी कुंडली काशी के किसी बड़े पंडित से बनवाया | जब मैं मात्र दो वर्ष का था तो वह पंडित जी मेरे घर पधारे | उन के दर्शन की की धुंधली स्मृति आज भी मेरे जेहन में है | घर के बड़े बुजुर्ग बताते हैं कि उन्होंने मेरी कुंडली और पांवो में चक्कर देख उसी वक्त बताया था कि बालक की कुंडली में राजयोग है और पाँव के चक्कर बताते हैं कि यह चक्करवर्ती सम्राट बनेगा | उन्होंने बताया कि चक्रानुसार बालक का राशिनाम ' इ ' वर्ण से होगा | माँ ने उनसे तत्काल आग्रह किया कि वाह लगे हाथ मेरा नामकरण भी कर दें | सो उन्होंने कर दिया |
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मेरे जन्म के कुछ वर्षों बाद ही देश में राजाओं का राज खत्म हो गया | मेरे घर वालों को लगा कि उनके अरमानों पर अब पानी फिर गया परन्तु उन भोले भाले लोगों को यह नहीं पाता था कि कोई भी तन्त्र बदलते बदलते , बदलता है | बहुत दिनों तक सांस्कृतिक तौर पर हम वही तन्त्र जीते है | इसका प्रमाण जल्द ही मिलने लगा | लोकतंत्र के नाम पर एक प्रच्छन्न राजतन्त्र अपने छद्म वैभव के साथ बाकायदा मौजूद था | अब राजा का पदनाम बदल कर प्रधान मंत्री हो चुका था और विधिक प्रधानमंत्री , प्राविधिक रूप से प्रधान सेवक के तौर पर खुद को प्रस्तुत करने लगा था | जनता को भरमाने की लोकतान्त्रिक कला पर देवता गण प्रसन्न थे | इश्वर का आशीर्वाद तो साथ था ही | जो दरिद्र , पहले नारायण हुआ करता था वही जनता अब जनार्दन की संज्ञा से विभूषित थी |
खैर ! मैं बता रहा था कि राज तन्त्र के रूपान्तरण से जो तात्कालिक निराशा मेरे परिवार में पैठी थी वह अब दूर हो चुकी थी | हालांकि मैं सिर्फ दो वर्ष का था लेकिन अपनी विलक्षण स्मृति का क्या करूं | मेरी स्मृति है ही कुछ ऐसी कि वह मुझे रोज़ नयी नयी जानकारियों से परिचित कराती है | मेरी प्रखर मेधा, अद्भुत , अनूठी विश्लेषण पद्धति और भाषणों के चमत्कारिक प्रभाव से तो आप पहले से परिचित है | आप तो जानते हैं कि मैं कितने वर्षों से राजनीति में हूँ और न जाने कितने चुनाव फेस कर चुका हूँ परन्तु जब मेरे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण चुनाव आया तो मेरी स्मृति ने मेरा कितना साथ दिया | मेरे मस्तिष्क को झकझोर कर उसने बताया कि मैं बचपन में चाय बेचता था | बस् फिर क्या था मैंने पूरी दुनिया को यह दिखा दिया कि चाय - यान से शुरू हुई यात्रा कैसे वायु - यान की यात्रा में परिवर्तित हो सकती है | तो यह था मेरी स्मृति का कमाल | अब आज मैं अपनी स्मृति संसार का एक और अजूबा आपको बताना चाहता हूँ |
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तो मैं , कह रहा था कि वो काशी वाले पंडित जी बहुत पहुंचे हुए थे , कुंडली निर्वचन से लेकर हस्तरेखा पर प्रवचन समान अधिकार से दे सकते थे | उस रोज़ जब वह घर आये थे तो माँ ने मेरा हाथ भी उन्हें दिखाया और उन्हें मुझे गुरुमंत्र भी देने को कहा | पंडितजी ने बाकी जो भी बताया हो वह तो फिलहाल याद नही परन्तु उन्होंने मेरे कान में जो फूंका वह अक्षरशः मुझे आज भी याद है | वह मंत्र उस वक्त से ही मेरा जीवन मंत्र है | मेरे तमाम दौरे , मेरी हवाई यात्राएं , मेरा आकाश के प्रति आकर्षण सब इसी मंत्र की देन है | जब कभी मैं मंच पे होता हूँ तो भी दस हाथ जमीन से ऊपर होता हूँ और आपने गौर किया होगा कि मैं बाते भी हवा में करता हूँ और मेरी बातें भी कितनी हवा हवाई होती हैं | होती हैं कि नही ....होती हैं .....| यह तो होनी है जो हो रही है | यह मेरे गुरु के मंत्र का प्रभाव है कि मेरा एक पैर मंच या कारपेट पर होता है तो दूसरा हवाई जहाज़ में ....
.मैं बहुत मजबूर हूँ , मितरों ! लेकिन मेरी मजबूरी का नाम महात्मा गांधी नही है जिन्हें अंग्रेजों ने , ट्रेन से उठा कर जमीन पर पटक दिया गया था | मेरी मजबूरी का नाम मेंरे उन दो गुरुओं से जुड़ा है जिन्होंने जमीन से उठा कर मुझे आकाश में फेंक कर पहुंचा दिया | इसलिए , फेंकना आज मेरे लिए सिर्फ कला भर नही है , यह मेरा जीवन दर्शन भी है | सो हम पे लाजिम भी है कि हम फेंके ......
लेकिन फिर भी मितरों हम सब कुछ तो नही फेंक सकते न | मैं भला कैसे फेंक दूं उस गुरुमंत्र को , जो मेरे जेहन में पैबस्त है , कि जब उन्होंने हौले से मेरे कान में मुझे मेरे राशिनाम से सम्बोधित करते हुए कहा ............
'' इब्न बतूता '' !
" आपके पाँव देखे , बहुत हसीन हैं , इन्हें जमीन पे मत उतारियेगा , मैले हो जायेंगे ......''
मितरो ! मैं क्या करूं ......मैं महान जरूर हूँ , मगर अपने गुरुओं की शिक्षाओं का गुलाम भी हूँ ...एक गुरु , जिन्होंने मेरा कान फूंका और हर वक्त हवा में उड़ते रहने की रूहानी वजह दी दूसरे गुरु राहुल जिन्होंने मुझे भ्रमण की भौतिकवादी प्रेरणा दी .....इन दोनों को मेरा प्रणाम ...अब मुझे एक और गुरु की तलाश भी करनी है जो हो तो विदेशी परन्तु मेरे लिए मेरे गुरु का भारत में ही निर्माण करें ......ताकि मैं इस '' मेक इन इण्डिया '' गुरु के चरणों में साष्टांग हो अपना परलोक संवार सकूं ...........
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